Lekhika Ranchi

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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद


48.

गायत्री बनारस पहुँच कर ऐसी प्रसन्न हुई जैसे कोई बालू पर तड़पती हुई मछली पानी में जा पहुँचे। ज्ञानशंकर पर राय साहब की धमकियों का ऐसा भय छाया हुआ था कि गायत्री के आने पर वह और भी सशंक हो गये। लेकिन गायत्री की सान्त्वनाओं ने शनैःशनैः उन्हें सावधान कर दिया। उसने स्पष्ट कह दिया कि मेरा प्रेम पिता की आज्ञा के अधीन नहीं हो सकता। वह ज्ञानशंकर को अन्याय-पीड़ित समझती थी और अपनी स्नेहमयी बातों से उनका क्लेश दूर करना चाहती थी। ज्ञानशंकर जब गायत्री की ओर से निश्चिन्त हो गये तो उसे बनारस के घाटों और मन्दिरों की सैर कराने लगे। प्रातःकाल उसे ले कर गंगा स्नान करने जाते, संध्या समय बजरे पर या नौका पर बैठा कर घाटों की बहार दिखाते। उनके द्वार पर पंडों की भीड़ लगी रहती। गायत्री की दानशीलता की सारे नगर में धूम मच गयी। एक दिन वह हिन्दू विश्वविद्यालय देखने गयी और बीस हजार दे आयी। दूसरे दिन ‘इत्तहादी यतीमखाने’ का मुआइना किया और दो हजार रुपये बिल्डिंग फंड को प्रदान किए। सनातन-धर्म के नेतागण गुरुकुलाश्रम के लिए चंदा माँगने आए। चार हजार उनके नजर किए। एक दिन गोपाल मंदिर में पूजा करने गयी और महन्त जी को दो हजार भेंट कर आयी। आधी रात तक कीर्तन का आनंद उठाती रही। उसका मन कीर्तन में सम्मिलित होने के लिए लालायित हो रहा था। पर ज्ञानशंकर को यह अनुचित जान पड़ता था। ऐसा कीर्तिन उसने कभी न सुना था।

इसी भाँति एक सप्ताह बीत गया। संध्या हो गई थी। गायत्री बैठी बनारसी साड़ियों का निरीक्षण कर रही थी। वह उनमें से एक साड़ी लेना चाहती थी, पर रंग का निश्चय न कर सकती थी। एक-एक साड़ी को सिर पर ओढ़ कर आईने में देखती और उसे तह करके रख देती। कौन रंग सबसे अधिक खिलता है, इसका फैसला न होता था। इतने में श्रद्धा आ गयी। गायत्री ने कहा, बहिन, भली आयीं। बताओ, इसमें से कौन सी साड़ी लूँ? मुझे तो सब एक सी लगती हैं।

श्रद्धा ने मुस्कुरा कर कहा– मैं गँवारिन इन बातों को क्या समझूँ।

गायत्री– चलो, बातें न बनाओ। मैं इसका फैसला तुम्हारे ही ऊपर छोड़ती हूँ। एक अपने लिए चुनो और एक मेरे लिए।

श्रद्धा– आप ले लीजिए, मुझे जरूरत नहीं है। यह फिरोजी साड़ी आप पर खूब खिलेगी।

गायत्री– मेरी खातिर से एक साड़ी ले लो।

श्रद्धा– लेकर क्या करूँगी? धरे-धरे कीड़े खा जायेंगे।

श्रद्धा ने यह बात कुछ ऐसे करुण भाव से कही कि गायत्री के हृदय पर चोट-सी लग गयी। बोली, कब तक यह जोग साधोगी। बाबू प्रेमशंकर को मना क्यों नहीं लेतीं?

श्रद्धा ने सजल नेत्रों से मुस्कुराकर कहा– क्या करूँ, मुझे मनाना नहीं आता।

गायत्री– मैं मना दूँ?

श्रद्धा– इससे बड़ा और कौन उपकार होगा, पर मुझे आपके सफल होने की आशा नहीं है। उन्हें अपनी टेक है और मैं धर्म-शास्त्र से टल नहीं सकती। फिर भला मेल क्योंकर होगा?

गायत्री– प्रेम से।

श्रद्धा– मुझे उनसे जितना प्रेम है वह प्रकट नहीं कर सकती, अगर उनका जरा भी इशारा पाऊँ तो आग में कूद पड़ूँ। और मुझे विश्वास है कि उन्हें भी मुझसे इतना ही प्रेम है, लेकिन प्रेम केवल हृदयों को मिलाता है, देह पर उसका बस नहीं है।

इतने में ज्ञानशंकर आ गये और गायत्री से बोले, मैं जरा गोपाल मन्दिर की ओर चला गया था। वहाँ कुछ भक्तों का विचार है कि आपके शुभागमन के उत्सव में कृष्ण लीला करें। मैंने उनसे कह दिया है कि इसी बँगले के सामनेवाले सहन में नाट्यशाला बनायी जाय। गायत्री का मुखकमल खिल उठा। बोली, यह जगह काफी होगी?

ज्ञान– हाँ, बहुत जगह है। उन लोगों की यह भी इच्छा है कि आप भी कोई पार्ट लें।

गायत्री– (मुस्करा कर) आप लेंगे तो मैं भी लूँगी।

ज्ञानशंकर दूसरे ही दिन रंगभूमि के बनाने में दत्तचित्त हो गये। एक विशाल मंडप बनाया गया। कई दिनों तक उसकी सजावट होती रही। फर्श, कुर्सियाँ, शीशे के सामान, फूलों के गमले, अच्छी-अच्छी तस्वीरें सभी यथास्थान शोभा देने लगीं। बाहर विज्ञापन बाँटे गये। रईसों के पास छपे हुए निमंत्रण-पत्र भेजे गये। चार दिन तक ज्ञानशंकर को बैठने का अवसर न मिला। एक पैर दीवानखाने में रहता था, जहाँ अभिनेतागण अपने-अपने पार्ट का अभ्यास किया करते थे, दूसरा पैर शामियाने में रहता था, जहाँ सैकड़ों मजदूर, बढ़ई, चित्रकार अपने-अपने काम कर रहे थे। स्टेज की छटा अनुपम थी। जिधर देखिए हरियाली की बहार थी। पर्दा उठते ही बनारस में ही वृन्दावन का दृश्य आँखों के सामने आ जाता था। यमुना तट के कुंज, उनकी छाया में विश्राम करती हुई गायें, हिरनों के झुंड़, कदम की डालियों पर बैठे हुए मोर और पपीहे-सम्पूर्ण दृश्य काव्य रस में डूबा हुआ था।

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